खुले गगन पे झुक गयी, किसी की सुरमई पलक 
किसी की लट बिखर गयी, घिरी घटा जहां तलक 
धुली हवा में घुल गयी, किसी की सांस की महक 
किसी का प्‍यार आज बूंद-बूंद से गया छलक 


सावन की रिमझिम में थिरक-थिरक नाचे रे मयूर पंखी रे सपने 
कजरारी पलक झुकी रे, घिर गयी घटायें 
चूडियां बजाने लगीं रे, सावनी हवाएं 
माथे की बिंदिया, जो घुंघटा से झांके 
चमके बिजुरिया, कहीं झिलमिलाके 
बूंदों के घुंघरू झनका के रे। 
सावन की रिमझिम में।। 

छलक गयीं नीलगगन से रसभरी फुहारें 
महक उठीं तेरे बदन सी भीगती बहारें 
रिमझिम फुहारों के रस में नहाके 
सिमटी है फिर मेरी बांहों में आके 
सपनों की दुलहन शर्मा के हो। 
सावन की रिमझिम में।।